लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-इ नापायदार में
इन हज्रतों से कह दो कहीं और जाके बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-इ-दागदार में
इक शाख-इ- गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान
कांटें बीचा दिए हैं दिल-इ -लालज़ार पे
दिन ज़िन्दगी के ख़तम हुए शाम हो गयी
फल्ला के पावों सोयेंगे कोंच-इ- मजार में
कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कु-इ-यार में
This is a famous poem /ghazal by Bahadur Shah Zafar. It is the first and the last stanza which always takes my breath away
No comments:
Post a Comment